(रचना: पूज्य श्री आनंदघनजी महाराज)
संभवदेव ते धुर सेवो सवे रे
लही प्रभु सेवन भेद...
सेवन कारण पहेली भूमिका रे
अभय अद्वेष अखेद
भय चंचलता हो जे परिणाम-नी रे
द्वेष अरोचक भाव... (२)
खेद प्रवृत्ति हो करतां थाकिये रे (२)
दोष अबोध लखाव...
संभवदेव ते...
चरमावर्ते हो चरम करण तथा
भव परिणति परिपाक... (२)
दोष टले वळी दृष्टि खूले भली (२)
प्राप्ति प्रवचन वाक...
संभवदेव ते...
परिचय पातिक घातक साधुशुं
अकुशल अपचय चेत ...(२)
ग्रंथ अध्यातम श्रवण मनन करी ...(२)
परिशीलन नय हेत
संभवदेव ते...
कारण जोगे हो कारज नीपजे रे
एहमां कोई न वाद ...(२)
पण कारण विण कारज साधिये ...(२)
ए निज मत उन्माद
संभवदेव ते...
मुग्ध सुगम करी सेवन आदरे रे
सेवन अगम अनूप ...(२)
देजो कदाचित् सेवक याचना रे ...(२)
आनंदघन रस रूप
संभवदेव ते...
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