शीतल जिनपति प्रभुता प्रभुनी, मुजथी कहिय न जायजी,
अनंतता निर्मलता पूर्णता, ज्ञान विना न जणायजी. शीतल...१
चरमजलधि जलमिणे अंजलि,गति जीपे अतिवायजी,
सर्व आकाश ओलंघे चरणे, पण प्रभुता न गणायजी. शीतल...२
सर्व द्रव्य प्रदेश अनंता, तेहथी गुण पर्यायजी;
तास वर्गथी अनंत गुणुं प्रभु, केवलज्ञान कहायजी. शीतल...३
केवल दर्शन एम अनंते, ग्रहे सामान्य स्वभावजी;
स्वपर अनंतथी चरण अनंतुं, स्वरमण संवर भावजी. शीतल...४
द्रव्य क्षेत्र ने काळ भाव गुण, राजनीति ए चारजी;
त्रास विना जड चेतन प्रभुनी, कोई न लोपे कारजी. शीतल...५
शुद्धाशय थिर प्रभु उपयोगे, जे समरे तुज नामजी;
अव्याबाध अनंतुं पामे, परम अमृत सुखशामजी. शीतल...६
आणा ईश्वरता निर्भयता, निर्वाछकता रूपजी
भाव स्वाधीन ते अव्यय रीते, इम अनंत गुणभूपजी. शीतल...७
अव्याबाध सुख निर्मळ ते तो, करणज्ञाने न जणायजी;
तेह ज एहनो जाणंग भोक्ता, जे तुम सम गुणरायजी. शीतल...८
एम अनंत दानादिक निज गुण, वचनातीत पंडूरजी;
वासन भासन भावे दुर्लभ, प्राप्ति तो अति दूरजी. शीतल...९
सकल प्रत्यक्षपणे त्रिभुवन-गुरु, जाणुं तुज गुणग्रामजी,
बीजां कांई न मागुं स्वामी, एहिज छे मुज कामजी.शीतल...१०
एम अनंत प्रभुता सद्दहतां, अर्थे जे प्रभुरूपजी;
देवचंद्र प्रभुता ते पामे, परमानंद स्वरूपजी शीतल...११
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